मात श्री राणीसती जी मेरी,
कष्ट कर दूर भक्त के री।।
पाय मैं पडूँ मात थारे,
क्षमा कर चूक भयी म्हारे,
अनेको विघन आप टारे,
काज निज भक्तन के सारे,
दोऊ कर जोड़े मैं खड़ा,
जननी थारे द्वार,
ओ मैया जननी थारे द्वार,
दुखित दीन माँ जान के मुझको,
जरा दो पलक उघाड़,
कृपा कर बिलखत भयी देरी,
कष्ट कर दूर भक्त के री।
मात श्री रानीसती जी मेरी,
कष्ट कर दूर भक्त के री।।
कहत है सिद्धि मुनि ज्ञानी,
तुम्ही जगदंबा राज रानी,
मूक है कवियन की वाणी,
की महिमा जात नही जानी,
अखंड ज्योति प्रकाश है,
व्यापक सकल जहान,
ओ मैया व्यापक सकल जहान,
सुंदर मंदिर रम्य शिखर,
जाके ध्वजा उड़े आसमान,
बजे है शंख तू रही मेरी,
कष्ट कर दूर भक्त के री।
मात श्री रानीसती जी मेरी,
कष्ट कर दूर भक्त के री।।
गरुड़ चढ़ कमलापति आए,
सुदर्शन चक्र साथ लाए,
ग्राह से गज को छुड़वाए,
विमल यश तिहुँ लोक गाये,
आप मात उस रीत से,
सिंह सवारी साज,
ओ मैया सिंह सवारी साज,
आओ आतुर राखो अपने,
शरण पड़े की लाज,
लखुं मैं सौम्य सूरत तेरी,
कष्ट कर दूर भक्त के री।
मात श्री रानीसती जी मेरी,
कष्ट कर दूर भक्त के री।।
भयानक तूफ़ा दिया घेरा,
दिखत है उलट पुलट बेड़ा,
निगाह से चोकर पा हेरा,
आप बिन कोई नही मेरा,
भव निधि घोर तरंग से,
बच्यो ना कोई भाव,
ओ मैया बच्यो ना कोई भाव,
‘त्रिलोकचंद्र’ दया कर मैया,
भक्त बचावन आओ,
नाव मझधार पड़ी मेरी,
कष्ट कर दूर भक्त के री।
मात श्री रानीसती जी मेरी,
कष्ट कर दूर भक्त के री।।
मात श्री राणीसती जी मेरी,
कष्ट कर दूर भक्त के री।।
स्वर – सौरभ मधुकर जी।