संध्या ओ आरती सुमिरन होवे,
दोहा – संध्या सुमिरण आरती,
भजन भरोसे दास,
मनसा वाचा कर्मणा,
होत विघ्न को नास।
संध्या ओ आरती सुमिरन होवे,
सुमिरन किया आनन्द फल होवे।।
पहली ओ आरती प्रेम प्रकाशा,
कर्म भर्म का करीया ओ नाशा,
संध्या ओ आरती सुमिरण होवे,
सुमिरन किया आनन्द फल होवे।।
दुजी ओ आरती दिल आय देवा,
तन-मन-धन से करलो री सेवा,
संध्या ओ आरती सुमिरण होवे,
सुमिरन किया आनन्द फल होवे।।
तीजी ओ आरती तीर गुण पूजे,
सतगुरु ज्ञान अगोतर पुजे,
संध्या ओ आरती सुमिरण होवे,
सुमिरन किया आनन्द फल होवे।।
चौथी ओ आरती चारों जुग पुजा,
गुरु के सम्मान और नहीं दुजा,
संध्या ओ आरती सुमिरण होवे,
सुमिरन किया आनन्द फल होवे।।
पांचवी आरती पद निर्माणा,
केवे कबीरमा सुणो धर्मी दासा,
यह हंसा सत लोक निवासा,
संध्या ओ आरती सुमिरण होवे,
सुमिरन किया आनन्द फल होवे।।
संध्या ओ आरती सुमिरण होवे,
सुमिरन किया आनन्द फल होवे।।
गायक – जगदीश / राजु बेरवा।
चारभुजा साउंड जोरावरपुरा।