हिमगिरि सुता रूप जगदम्बा,
ब्रह्मचारिणी माते,
दूजी ज्योतिर्मयी शक्ति तुम,
भवभयहारिणि माते।।
बायें हाथ कमण्डलु शोभित,
दायें हाथ जप-माला,
जगत-जननि माँ ‘पार्वती’ ने,
तपसी-रूप सम्हाला।
पति-रूप शिवजी को पाने,
बहुत कठिन व्रत लीन्हाँ,
सहस-वर्ष फल-फूल खायके,
आप घोर तप कीन्हाँ।।
तीन-सहस-वर्षों तक सूखे,
विल्व-पत्र तुम खाये,
वर्षा-धूप-शीत सह तुमने,
हाय महा दुःख पाये।
कई-वर्षों तक निराहार रह,
निर्जल ही तप कीन्हाँ,
हो प्रसन्न तब ‘महादेव’ ने,
मनवाञ्छित वर दीन्हाँ।।
नाम पड़ा तबसे ‘ब्रह्मचारिणि’,
हे सुखशांतिस्वरूपा,
जो ध्याये मनवचन से तुमको,
पड़े न वह भवकूपा।
हे जगजननी ‘ब्रह्मचारिणी’,
कृपादृष्टि अब कीजे,
श्रीचरणारविन्द की भक्ति,
मोहि दया कर दीजे।।
तप-वैराग्य-त्याग-दात्री,
हे दोष-निवारिणि माता,
करूँ वन्दना मैं ‘अशोक’,
हे तपस्चारिणी माता।।
हिमगिरि सुता रूप जगदम्बा,
ब्रह्मचारिणी माते,
दूजी ज्योतिर्मयी शक्ति तुम,
भवभयहारिणि माते।।
रचनाकार – श्री अशोक कुमार खरे।
गायन स्वर – कुमारी कृतिका & स्वाति खरे।