अपने रंग मे रंग लो प्रीतम,
करके बहाना होली का,
कैसे कहूँ मै अपने मुख से,
विषय नही यह बोली का।।
तर्ज – नगरी नगरी द्वारे द्वारे।
(होली विशेष)
नीला पीला हरा गुलाबी,
रँग नही यह चाहूँ मै,
अँग अँग मे रँग भरदो प्रीतम,
लालो लाल हो जाऊँ मै,
ऐसा रँग चढ़ा दो प्रभू जी,
याद रहे दिन होली का,
अपने रंग मे रँग लो प्रीतम।।
कबिरा मीरा और शबरी को,
जैसा रँग चढ़ाया है,
नस नस मे वो नशा जगादो,
जो प्रहलाद ने पाया है,
यमराजा भी रोक सके न,
देख के रँग मेरी डोली का,
अपने रंग मे रँग लो प्रीतम।।
रँगना हो तो ऐसा रँगना,
रँग कभी जो छूटे ना,
राम रतन धन मुझे भी दे दो,
जो खर्चे से खूटे ना,
तेरा मेरा रहे ये रिश्ता,
जैसे चाँद चकोरी का,
अपने रंग मे रँग लो प्रीतम।।
अपने रंग मे रंग लो प्रीतम,
करके बहाना होली का,
कैसे कहूँ मै अपने मुख से,
विषय नही यह बोली का।।
– भजन लेखक एवं प्रेषक –
श्री शिवनारायण वर्मा,
मोबा.न.8818932923
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