दुनिया खोजे घाट घाट,
हरि घट घट वासी रे।
दोहा – सब घट मेरा साइयां,
खाली घट ना कोय,
बलिहारी वा घट की,
जामे प्रगट होय।
इस घट अंतर बाग बगीचा,
इसी में सिर्जनहारा,
इस घट अंतर सात समंदर,
इसी में नौ लख तारा।
कस्तूरी कुंडल बसे,
मृग ढूंढे वन माहीं,
ऐसे घट घट राम है,
दुनियां जानत नाहीं।।
नाही अवध में ना मथुरा में,
ना हरि काशी रे,
दुनिया खोजे घाट घाट,
हरि घट घट वासी रे,
हर दुःख हर्ता आनंद कर्ता,
सब सुख राशि रे,
दुनियां खोजे घाट घाट,
हरि घट घट वासी रे।।
कस्तूरी बसे कुंडल माहीं,
बेकल हिरना बुझत नाही,
हरि यो ही घट माही समाए,
मन मुरख पहचान न पाए,
अज्ञानी का अंतर प्यासा,
दृष्टि भी प्यासी रे,
दुनियां खोजे घाट घाट,
हरि घट घट वासी रे।।
जोग जुगत कछु काम न आवै,
ध्यान धरे तो पार न पावे,
प्रेम स्वरूप प्रेम निधि दाता,
प्रेम के पंथ सहज मिल जाता,
घूंघट के पट खोल मिलेंगे,
हरि अविनाशी रे,
दुनियां खोजे घाट घाट,
हरि घट घट वासी रे।।
तर्क किए कछु हाथ न आये,
तर्क करे जो जन्म गवाये,
श्रद्धा और विश्वास के पांव,
चले तो पहुंचे हरि के गांव,
हरि गुण गावे हरि को पावे,
हरि विश्वासी रे,
दुनियां खोजे घाट घाट,
हरि घट घट वासी रे।।
नाही अवध में ना मथुरा में,
ना हरि काशी रे,
दुनियां खोजे घाट घाट,
हरि घट घट वासी रे,
हर दुःख हर्ता आनंद कर्ता,
सब सुख राशि रे,
दुनियां खोजे घाट घाट,
हरि घट घट वासी रे।।
प्रेषक – डॉ सजन सोलंकी।
9111337188