कैलाशी काशी के वासी,
शंकर शंभू भोले हो,
गंग तरंग भुजंग अंग में,
चढै भंग के गोले हो।।
भाल बीचविधु बाल सजै,
गलगरल शेषजी टुलै हो,
सहस्त्र मुख रसना करैे लप लप,
जप पलभर ना भुलैं हो,
झुलैं उमा झुलाते गण,
घल रहे गिरि शिखर हिंडोले हो।।
बजै डमरू डम डम नाचै छम छम,
भैरू भरे उमंग मैं हो,
बावन बीर योगिनी चोंसठ,
छप्पन कलवे संग मैं हो,
ऊच्छंग मैं गज मुख षड़ानन,
वाहन वूषभ धोले हो।।
शृंगी भृंगी नन्दीश्वर नित चित,
चरण मैं लाते हो,
जो जन चरण शरण मैं रहते,
मन वांछित फलपाते हैं,
गाते हैं भूत पिशाच लगाते,
चक्कर ओले सोले हो।।
सेद लक्षमण शंकरदास के,
परम गुरू गोपालक है,
भज केशवराम नाम शंभू का,
तज गप सप नहीं ताप दहै,
रहे नन्दलालरमे हर सर्ब मैं ज्यूं,
रुई बीच बिनोले हो।।
कैलाशी काशी के वासी,
शंकर शंभू भोले हो,
गंग तरंग भुजंग अंग में,
चढै भंग के गोले हो।।
गायक – धर्मेश कौशिक।
लेखक – पंडित नंदलाल जी।
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