कैसे चुकाऊं इन सांसों का मोल रे,
दोहा – दुर्लभ मानुष जीवन है,
देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यो पत्ती झड़े,
बहुरी न लागे डार।
जननी हमको जन्म दे,
जन्मभूमि दे मान,
जननी तो पहचान है,
जन्मभूमि अभिमान।
कैसे चुकाऊं इन सांसों का मोल रे,
जनम देने वाले इतना तो बोल रे।।
तेरी कृपा से मिला मुझको ये तन,
जिसमे बसाऊं तुझे दिया है वो मन,
तन की तो खोली आंखे,
मन की भी खोल रे,
जनम देने वाले इतना तो बोल रे,
कैसे चुकाऊँ इन साँसो का मोल रे,
जनम देने वाले इतना तो बोल रे।।
मैंने किया न कोई दान धरम,
छल से भरे है मेरे सारे करम,
नाम भुलाया मैंने,
तेरा अनमोल रे,
जनम देने वाले इतना तो बोल रे,
कैसे चुकाऊँ इन साँसो का मोल रे,
जनम देने वाले इतना तो बोल रे।।
मद में हमेशा रहा मैं चूर चूर,
मंदिरों से भगवन मैं रहा दूर दूर,
किसी से न बोले,
मैंने दो मीठे बोल रे,
जनम देने वाले इतना तो बोल रे,
कैसे चुकाऊँ इन साँसो का मोल रे,
जनम देने वाले इतना तो बोल रे।।
कैसे चुकाऊँ इन साँसो का मोल रे,
जनम देने वाले इतना तो बोल रे।।
स्वर – श्री अनूप जलोटा जी।
प्रेषक – डॉ सजन सोलंकी।
9111337188