कल श्री जी के महलो में,
मैं तो बैठी थी भाव में,
थोड़ा सा पर्दा हटा,
मेरे आँसू निकल आये।।
तर्ज – अखियों के झरोखों से।
मुझसे बोली किशोरी जू,
क्यों रोने लगी तू,
मैं साथ हूँ धीरज काहे,
फिर खोने लगी तू,
उनकी ममता निरख करके,
मेरी जीभा अटक सी गई,
मैं कुछ बोल नहीं पाई,
मेरे आँसू निकल आये।।
मैं बोली मैं हार गई,
जग निरमोही जीत गया,
तुम आये नहीं हे किशोरी जू,
मेरा जीवन बीत गया,
श्री जी उठके सिघासन से,
मेरी गोदी में आ गई,
थोड़ा सा शर्माई,
मेरे आँसू निकल आये।।
मेरी ठोड़ी पकड़ करके,
मेरी अखियो मे देखकर,
जाने कैसा इशारा किया सखी,
मेरी मस्तक की रेख पर,
आह्लाद प्रकट हो गया,
मुझे कम्पन सा होने लगा,
मैं कुछ समझ नहीं पाई,
बस आंसू निकल आये।।
फिर ऐसा लगा मुझको,
मै उड़ पहुंची सघन वन मे,
यहाँ अष्ट सखी संग राज रही,
श्यामा जू निकुंजन मे,
ललिता जू करीब आई,
बड़ा प्रेम से बतयाई,
ललिता जू करीब आई,
मेरी पकड़ी कलाई थी,
हरिदासी तू कब आई,
मेरे आँसू निकल आये।।
कल श्री जी के महलो में,
मैं तो बैठी थी भाव में,
थोड़ा सा पर्दा हटा,
मेरे आँसू निकल आये।।
स्वर – श्री हरिदासी बाबा बरसाना।
प्रेषक – पंकज कपूर।
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