म्हारा मन में बस गयो श्याम,
रुणिजा नगरी को,
रुणिजा नगरी को,
रुणिजा नगरी को,
म्हारे मन में बस गयो श्याम,
रुणिजा नगरी को।।
घणा दिना की मन में म्हारे,
पैदल-पैदल आऊ थारे,
मन अबक बुलायो श्याम,
रुणिजा नगरी को,
म्हारे मन में बस गयो श्याम,
रुणिजा नगरी को।।
झांकी माही डीजे बाजे,
बना नचाया मनडो नाचे,
मन घणो नचायो श्याम,
रुणिजा नगरी को,
म्हारे मन में बस गयो श्याम,
रुणिजा नगरी को।।
गेला में भण्डारा लागे,
मनवारा करता नहीं थाके,
मन घणो जिमायो श्याम,
रुणिजा नगरी को,
म्हारे मन में बस गयो श्याम,
रुणिजा नगरी को।।
सांचा मन से जो कोई जावे,
बाबो पल में आस पुरावे,
वाने दरस दिखावें श्याम,
रुणिजा नगरी को,
म्हारे मन में बस गयो श्याम,
रुणिजा नगरी को।।
दरसण कर मनडो सुख पावे,
रमेश प्रजापत मन की गावे,
म्हारा घट में बस गयो श्याम,
रुणिजा नगरी को,
म्हारे मन में बस गयो श्याम,
रुणिजा नगरी को।।
म्हारा मन में बस गयो श्याम,
रुणिजा नगरी को,
रुणिजा नगरी को,
रुणिजा नगरी को,
म्हारे मन में बस गयो श्याम,
रुणिजा नगरी को।।
– गायक एवं प्रेषक –
रमेश प्रजापत टोंक