नाथ थारे शरण पड़ी दासी,
म्हानै भवसागर स्यूं त्यार,
काटद्यो जनम-मरण फांसी,
नाथ थांरै शरण पड़ी दासी।।
तर्ज – नाथ मैं थांरो जी थांरो।
नाथ मैं भोत कष्ट पायी,
भटक-भटक चोरासी जूणी,
मिनखां देह पायी,
मिटाद्यो दुःखों की रासी,
म्हानै भवसागर स्यूं त्यार,
काटद्यो जनम-मरण फांसी,
नाथ थांरै शरण पड़ी दासी।।
नाथ मैं पाप भोत कीन्या,
संसारी भोगों की आशा,
दुःख भोत दीन्या,
कामना छै सत्यानासी,
म्हानै भवसागर स्यूं त्यार,
काटद्यो जनम-मरण फांसी,
नाथ थांरै शरण पड़ी दासी।।
नाथ मैं भगति नईं कीन्यी,
झूठे भोगों की तृष्णा मं,
उमर खो दीन्यी,
दुःख अब मेटो अबिनासी,
म्हानै भवसागर स्यूं त्यार,
काटद्यो जनम-मरण फांसी,
नाथ थांरै शरण पड़ी दासी।।
नाथ अब सैं आशा छूटी,
थांरै श्रीचरणां री भगति अेक छै,
सरजीवन बूटी,
रवूं नित दरसण री प्यासी,
म्हानै भवसागर स्यूं त्यार,
काटद्यो जनम-मरण फांसी,
नाथ थांरै शरण पड़ी दासी।।
नाथ थारे शरण पड़ी दासी,
म्हानै भवसागर स्यूं त्यार,
काटद्यो जनम-मरण फांसी,
नाथ थांरै शरण पड़ी दासी।।
पद रचैता – श्रीहनुमान प्रसादजी पोद्दारभाईजी।
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