फकीरी रहत निश्चिन्त सदैश,
देखण सुणन कहुँ सू न्यारा,
चेतन फक्कड़ हमेशा।।
सतगुरु मेहर करी मुझ सेती,
दिया ज्ञान उपदेश,
सोही ज्ञान श्रद्धा कर लीना,
तजिया देश विदेश,
फकीरी रहत निश्चिंत सदैश।।
जो जो रूप बंधे सोई धूला,
उरु अर परे मगेश,
चौदह लोक इक्कीशु ब्रह्मांड,
ये सब सगुण देश,
फकीरी रहत निश्चिंत सदैश।।
रंग रूप और नहीं आकारा,
प्रकट छोड़ नहीं घेश,
अप्रमाण और सुन्न समाना,
निर्गुण कहिए विदेश,
फकीरी रहत निश्चिंत सदेश।।
देश विदेश भाव ये दोनु,
मान्या मन हमेश,
तीक्ष्ण खण्ड ज्ञान का गेही कर,
परिया मन नरेश,
फकीरी रहत निश्चिंत सदेश।।
दवे भाव होता मन करघे,
सो मन रहा न लेश,
जियाराम गुरु केवल चेतन,
बन्नानाथ सोही शेष,
फकीरी रहत निश्चिन्त सदैश,
फकीरी रहत निश्चिन्त सदेश।।
फकीरी महाशूरन की शूर।
विषय भाव तजिया हँकारा,
करी कल्पना दूर,
तज हँकारा तजि मोहि ममता,
हुआ जगत से दूर,
फिकर तजिया तन मन का,
ले वैराग्य क्रूर,
फकीरी महाशूरन की शूर।।
राग भोग इंद्रादि लेके,
सबको जाणिया क्रूर,
कण वस्तु इणमें नहीं कोई,
तजिया फकर लग दूर,
फकीरी महाशूरन की शूर।।
नव निधि सिद्धि चौबीस फगर के,
हाजर खड़ी हुजूर,
फकर तजि झूठी करि इनको,
परश्या सत निज तूर,
फकीरी महाशूरन की शूर।।
जीया राम मिल्या गुरु पूरा,
दिया ज्ञान निज मूर,
बन्ना नाथ निरखिया निज नेणों,
जाय लिया बिन अंकुर,
फकीरी महा शुरन की शूर।।
फकीरी केवल ब्रह्म विचार।
सत असत का किया निवेड़ा,
तजि असत सत धार।।
जाग्रत स्वप्न शुशोपत कहिए,
ये तीनो गुण देख,
उत्पति इस्तेय ले तुरीय में,
तुरीय जाण अदेक,
फकीरी केवल ब्रह्म विचार।।
नहीं उत्पति प्रलय मेंआवे,
तुरीय ब्रह्म सुदेक,
शव्द दिखलाया आपरा हैं न्यारा,
नित निंकलंक निर्लेश,
फकीरी केवल ब्रह्म विचार।।
जाग्रत स्वप्न सुषुप्त माया,
ये जड़ असत क्लेश,
तुरीय सत चित आनंद अखंड,
तहाँ नहीं तिरगुण लेष,
फकीरी केवल ब्रह्म विचार।।
तुरीय अतीत सोई तुरीय साकी,
साकी प्रेरक अखेक,
बन्ना नाथ सोई शुध्द चेतन,
नहीं कोई लेख अलेख,
फकीरी केवल ब्रह्म विचार।।
फकीरी केवल ब्रह्म विचार,
सत असत का किया निवेड़ा,
तजि असत सत धार।।
गायक – कुशाल सिंह जी भाटी।
प्रेषक – रामेश्वर लाल पँवार, आकाशवाणी सिंगर।
9785126052