सत्संग बड़ी संसार में,
कोई बड़भागी नर पाया।।
संगत सुधरे वाल्मीकि,
जग की परित् लगी फीकी,
रामायण दी रच निकी,
साठ सहस्र विस्तार मे,
फिर निर्भय होकर गुण गाया।।
पूर्व जन्म नारद रिसी राई,
दासी पुत्र सेवा ठाई,
सत्संग से विद्या पाई,
लगाया ब्रह्मा विचार मे,
जन्म बरम घर पाया।।
घट से प्रगट अगस्त मुनिग्यानी,
सत्संग की महिमा जानी,
तीन चलूँ किया सागर पानी,
पिये गये एक ही बार,
जिसका यश जगत मे छाया।।
सन्तो की सत्संग नित करणा,
हरदम ध्यान हरि धरना,
कहे रविदत्त कुकर्म से डरणा,
दिन बिता करार मे,
सिर काल बली मडराया।।
सत्संग बड़ी संसार में,
कोई बड़भागी नर पाया।।
प्रेषक – जीवराज महाराज बोराङा।
9784909958