जैसे शीशी कांच की भाई,
वैसी नर थारी देह,
जतन करन्ता जावसी कोई,
हरि भज लावा लेय रे,
सिर मौत खड़ी है,
सुमिरन तो कर लो,
श्री भगवान का।।
सुतो सुतो क्या करें भाई,
सुता ने आवे नींद,
जम सिरहाने यूं खड़ो,
ज्यो तोरण आयो बिंद रे,
सिर मौत खडी हैं,
सुमिरन तो कर लो,
श्री भगवान का।।
माटी कहे कुम्हार को भाई,
तू क्यूं रोंदे मोहे,
एक दिन ऐसो आवसी जब,
मैं रोंदूंगी तोहे रे,
सिर मौत खडी हैं,
सुमिरन तो कर लो,
श्री भगवान का।।
चलती चाक्की देख के भाई,
दियो कबीरो रोय,
दोय पाटन के बीच में भाई,
साबत रहयो न कोय रे,
सिर मौत खडी हैं,
सुमिरन तो कर लो,
श्री भगवान का।।
संत दास संसार में रे केई,
गूधू केई डोड,
डूबण को सांसो नहीं रे,
नहीं तिरण रो कोड जी,
सिर मौत खडी हैं,
सुमिरन तो कर लो,
श्री भगवान का।।
कबीरा नौबत आपणी भाई,
दिन दस लेऊं बजाय,
यह पुर पट्टन यह गली कोई,
बहुरी न देखूं आय के,
सिर मौत खडी हैं,
सुमिरन तो कर लो,
श्री भगवान का।।
क्या कहूं कितनी कहूं रे,
कहां बजाऊं ढ़ोल,
श्वासा बीती जात है कोई,
तीन लोक रो मोल जी,
सिर मौत खडी हैं,
सुमिरन तो कर लो,
श्री भगवान का।।
जैसे शीशी कांच की भाई,
वैसी नर थारी देह,
जतन करन्ता जावसी कोई,
हरि भज लावा लेय रे,
सिर मौत खड़ी है,
सुमिरन तो कर लो,
श्री भगवान का।।
– स्वर –
महंत परमहंस डॉ. श्री रामप्रसाद जी महाराज।
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