तेरो ही भ्रम तू ही भुलायो,
दोहा – एक अखंडित ज्यो नभ व्यापक,
बाहर भीतर हैं इकसारो,
दृष्टक मुष्टक रूप न रेखा,
स्वेत न पीत न रक्त न कारो।
चक्रित होय रहे अनुभव बिन,
जहाँ लग नहीं ज्ञान उजियारो,
सुंदर कोऊ अक जानी सके,
यह गोकुल गाँव को पेंडो ही न्यारो।
प्रीत की रीत कछु नहीं जानत,
जात न पात नहीं कुल गारो,
प्रेम को नेम कऊँ नही दीसत,
लोक न लाज लग्यो सब खारो।
लीन भयो हरि सो अभी अंतर,
आठो हूँ याम रहे मतवारो,
सुंदर कोऊ अक जान सके,
यह गोकुल गाँव को पेंडो ही न्यारो।
मन ही के भ्रम से संसार सब देखियत,
मन ही को भ्रम गया जगत विलात हैं,
मन ही के भ्रम जेवड़ी में उपजत साँप,
मन ही को भ्रम साँप जेवड़ी में समात हैं।
मन ही के भ्रम से मृग मरीचिका को जल कहे,
मन ही के भ्रम रूपो सीप में दिखात हैं,
कहत सुंदर दिखे सब मन ही को भ्रम,
मन ही को भ्रम गयो बन्दा तू ब्रह्म होय जात हैं।
– भजन –
तेरो ही भ्रम तू ही भुलायो,
तेरे को तू नहीं पायो।।
नृप जद नींद में सोयो,
स्वप्न में रंक होय रोयो,
जाग्यो तो स्वप्न भरम खोयो,
भूप को भूप कहलायो।।
मुकुर के महल में आयो,
आइन लख स्वान भुकायो,
ललनी घर कीर चहकायो,
मने किण बाद लखवायो।।
मकड़ी ज्यूँ जाळ फ़ैलायो,
फ़ंद रच आप उलजायो,
रहे चिंता काल की फांसी,
बाँध दियो जीव अविनाशी।।
जगत को सुख दुःख कर मान्यो,
और निज स्वरूप नहीं जाण्यो,
कहे यूँ भारती आशा,
गजब हैं दुनिया का तमाशा।।
तेरो ही भ्रम तू ही भुलायो,
तेरे को तू नहीं पायो।।
स्वर – श्री प्रेमदान जी चारण।
प्रेषक – रामेश्वर लाल पँवार।
आकाशवाणी सिंगर।
9785126052