थारी मेलोड़ी चादर धोय,
दोहा – मन लोभी मन लालची,
मन चंचल मन चोर,
मन के मते नही चालिये,
पलक पलक मन ओर।
बिन धोया रंग ना चढ़े रे,
तिरणो किण बिद होय,
समझ मन मायला रे,
थारी मेलोड़ी चादर धोय।।
गुरांसा खुदाया कुंआ बावड़ी रे,
ज्यारो निर गंगाजल होय,
कोई तो नर न्हाय गया रे,
कोई नर काया मुख धोय,
समझ मन मायला रे,
थारी मेलोड़ी चादर धोय।।
तन की कुंडी बणायले रे,
ज्यारे मनसा साबुन होय,
प्रेम शिला पर देह फटकारो,
दाग रहे ना कोय,
समझ मन मायला रे,
थारी मेलोड़ी चादर धोय।।
रोहिड़ो रंग को फुटरो रे,
ज्यारा फुल अजब रंग होय,
वां फुलां की शोभा न्यारी,
बीणज सके ना कोय,
समझ मन मायला रे,
थारी मेलोड़ी चादर धोय।।
लिखमाजी ऊबा बीच भोम में रे,
ज्यारे ताग रयो न कोय,
तिजी पेड़ी ताग ग्यारे,
चौथी में रया रे सोय,
समझ मन मायला रे,
थारी मेलोड़ी चादर धोय।।
बिन धोया रंग ना चढ़े रे,
तिरणो किण बिद होय,
समझ मन मायला रे,
थारी मेलोड़ी चादर धोय,
थारी मेलोड़ी चादर धोय।।
स्वर – सम्पत जी दाधीच।
प्रेषक – रेगर नारायण कोशीथल
Ph-9549365704